Friday, November 26, 2010

एक मशहूर शायर ने कहा है----

किसी पत्थर में मूरत है, कोई पत्थर की मूरत है
लो मैंने देख ली दुनिया जो इतनी खुबसूरत है 
जमाना अपनी समझे पर मुझे अपनी खबर है
तुम्हे मेरी ज़रूरत है मुझे तेरी ज़रूरत है 

कोई कब तक महज सोचे कोई कब तक महज गाए?
अल्लाह क्या ये मुमकिन है क्या कुछ ऐसा हो जाये
मेरा मेहताब उसके रात के आगोश में पिघले
मै उसके नीद में जागु वो मुझमे घुल के सो जाये...

बदलने को तो इन आँखों के मंजर कब नही बदले
तुम्हारे याद के मौसम हमारे गम नही बदले
तुम अपने कर्म में हमसे मिलोगी तब तो मानोगी 
ज़माने और सदी के इस बदलने में हम नही बदले


कवि: डॉ. कुमार विश्वास